पलाक्खा बाजार-नामकरण का इतिहास
यदि आप से पूछा जाए कि मंडी नगर का रियासत कालीन सबसे छोटा बाजार कौन रहा होगा तो शायद आप में से बहुत से लोग इसका सही उत्तर नहीं दे पाएंगे।अलबत्ता साठ के दशक की वरिष्ठ पीढ़ी इससे भली भांति परिचित है। उस बहुत कम दुकाने शायद 12-13 दुकानें ही इस बाजार में नियमित रूप से खुलती थी। बाकी बन्द ही रहती थी।
इस बाजार का नाम है पलाक्खा बाजार। वैसे यह बड़े आश्चर्य की बात है कि बाबा की नगरी में भूतनाथ बाजार जैसा नाम होते हुए भी पलाक्खा बाजार ने अपना अस्तित्व अलग से बनाया। अब तो पलाक्खा बाजार भूतनाथ बाजार के एक हिस्से में मर्ज हो कर रह गया है।
जहां आजकल बेली हलवाई की दुकान है उसके ठीक सामने सड़क के साथ एक खाली जगह होती थी (सुआड़)।वहां पर कभी पलाश का पेड़ हुआ करता था। जिसे मण्डयाली में 'पलाक्खे रा डाढ़' कह कर पुकारा जाता था। कब यह पेड़ काटा गया इसका पता नहीं चल सका।और हिंदी में ढाक, पलाश, पलाह या टेशु भी कहते हैं।इस के औषधीय गुण बहुत ज्यादा होते हैं और 'ढाक के तीन पात' कहावत भी पेड़ के गुणो को देखते हुए जगत प्रसिद्ध है।
इसकी सीमा बालकरूपी मंदिर के सामने उस समय के प्रसिद्ध नाड़ी बैद पुरुषोत्तम वैद्य(घोपू बैद) अब हैप्पी हैंडलूम की दुकान से प्रारंभ होकर के आगे दुर्गू, बेली हलवाई, डब्लू पानबाई,तारु वैद्य इत्यादि दुकानों से होते हुए नीचे उतराई में ट्रंक वाले की दुकान तक जाती थी।
वजीर हाउस से आगे नीचे की ओर पहले काफी तीखी ढलान हुआ करती थी लेकिन समय के साथ-साथ इसमें बार-बार टॉयल इत्यादि लगाने से यह ढलान अब काफी खत्म हो चुकी है। लेकिन रियासत काल में इसी तीखी चढ़ाई को लेकर के पहले इस बाजार का नाम 'खड़ा बाजार' हुआ करता था।कालांतर में पलाश के पेड़ के लगने से इसका नामकरण दोबारा हुआ और इसे प्लाक्खा बाजार के नाम से जाने लगा । अब तो यह भूतनाथ बाजार का ही हिस्सा है।खड़ा बाजार नाम के बारे में हमें 100 वर्षीय बाबू ओम चन्द जी ने बताया जिन्होने स्वंय इसे देखा है।
मजे की बात है कि इस छोटे से बाजार में रोजाना जिंदगी की सभी आवश्यक वस्तुएं सब्जी-भाजी, मिठाई,पान,करयाना इत्यादि तब आसानी से मिल जाता था। इसमें दो प्रकार के बाजार लगते थे एक तो सुबह नियमित रूप से खुलने वाला बाजार जो प्रातः खुलकर रात्रि को बंद होता आ रहा है।और दूसरा हाटनुमा बजार जो भागी ड्राईक्लीनर और बगल की करियाना की दुकान के ऊपर सुबह ही सज जाता था और दुकान खुलने के समय तक यह बंद भी हो जाता था।आज भी सुबह यह दृश्य देखा जा सकता है। पहले रेहड़ाधार से किल्टों में घड़े में छाछ बेचने के लिए यहां आती थी और घर से बच्चों को सुबह सुबह लोटा लेकर के, हम भी उसी में शामिल होते थे, छाछ लाने के लिए भेजा जाता था। अब घड़ों में तो छाछ नहीं आती अलबत्ता प्लास्टिक की बोतलों में बिकती है। बलीराम मूंछों वाले की बर्फी (चुकलेट) के पतले-2 पीस, डब्लू पानबाई की शेरो शायरी के साथ बेचे गए पान(जो निःशुल्क पीलिया का इलाज भी करते थे), गुड़ से बनी घुंघले हलवाई की मशहूर ठण्स्या( दंदकड़ाका ) का स्वाद कई लोगों को अभी भी याद होगा।
वजीर हाऊस से नीचे की ओर जाता रास्ता
अब कई दुकानों में परिवर्तन हो चुका है। पुरानी दुकानों का स्वरूप अभी भी दो तीन दुकानों से जाहिर होता है। पहले दुकान बंद करने के लिए देवदार के लगभग 1 फुट चौड़े दुकान की साइज के तख्ते बनाए जाते थे जिन पर बाहर नंबर पड़े होते थे और दुकान को खोलकर एक कतार में रखा जाता है तो आज भी यहां आपको बेली,भागी व तारू की दुकान में देखने को मिल जाएंगे।mandipedia/23
रियासतकालीन हाट -समय सुबह 6 से 9 बजे