रियासत कालीन मंडी जनपद में टांकरी लिपि का उद्भव और विकास
-लेखक जगदीश कपूर
मंडी नगर और रियासत मंडी की स्थापना का इतिहास सुकेत के शासक साहु सेन के भाई बाहू सेन के इलाका मंगलौर में आ कर बसने से माना जाता है, इतिहासकारों द्वारा इसका समय १००० सं इस्वी के आस पास माना गया है ।पहले मंडी जनपद व्यास नदी के दायें तट पर ही स्थित था, जिसे आज भी पुराणी मंडी कहा जाता है । बाद में राजा अजवर सेन ( सन ई० १५००-१५३४ ) ने सन ई० १५२७ में व्यास के बाएं तट पर इसका विस्तार किया ।मंडी के भूतनाथ मन्दिर की स्थापना (इ० सन १५२७ ) से आधुनिक मंडी जनपद का इतिहास शुरू होता है। मंडी जनपद का नाम मंडी कैसे पड़ा इसके बारे में विद्वानों का अलग अलग मन्तव्य है, परन्तु मंडी का अर्थ व्यापार का केंद्र मान लेने से यह स्पष्ट हो जाता है की प्राचीन काल से ही मंडी जनपद विभिन्न क्षेत्रों से आने जाने वाले कारोबारिओं का केंद्र और आश्रय स्थल रहा होगा ।कश्मीर, पंजाब आदि क्षेत्रों से कुल्लू, लाहोल स्पीती, शिमला स्थानों की ओर जाने वाले व्यापारिओं को कांगड़ा, मंडी आदि स्थानों से होकर जाना पड़ता थ। वे लोग अपने साथ अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति भी साथ लाये होंगे । कुछ विद्वान पंडित भी अपने ग्रंथ हुआ है और अन्य साहित्य साथ लाये होंगे । क्योंकि टांकरी लिपि का उद्भव और विकास शारदा लिपि से और शारदा लिपि शारददेव प्रदेश यानि कश्मीर में उत्पन मानी जाती है, इस लिए यह माना जा सकता है की उस ओर से आने वाले लोग अपने साथ टांकरी लिपि भी लाये होंगे । इन्ही लोगों के सानिध्य से मंडी जनपद के लोगों का साक्षात्कार शारदा ओर उससे विकसित टांकरी लिपि से हुआ होगा, तथा यहाँ भी लिखने पढ़ने और व्यापारिक हिसाब किताब रखने में टांकरी का प्रयोग होने लगा होगा ।
मंडी जनपद और लगते क्षेत्रों की भाषा या बोली मंड्याली है । मंड्याली बोली में संस्कृत, उर्दू ,पंजाबी के शब्द ज्यों के त्यों या मिलते जुलते रूप में प्रयोग होते हैं । ऐसा इसलिए है क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहाँ आते जाते रहे, कुछ बस भी गये, उनके द्वारा बोले जाने वाली भाषा तथा लिपि स्वतः आत्मसात कर ली होगी ।
मंड्याली बोली की पुरानी लिपि टांकरी :---- विभिन्न साक्ष्यों, पांडुलिपियों, शिलालेखों इत्यादि के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है की मंडी जनपद में टांकरी, मंड्याली बोली की शासकीय और व्यापारिक तथा अन्य पत्र व्यवहार की लिपि रही है । साहित्यकार श्री हेम कान्त कात्यायन ने अपनी पुस्तक मंडयाली ओर उसका लोक साहित्य “ में आज से लगभग ९६२ वर्ष पूर्व से मंडी जनपद में टांकरी लिपि का प्रचलन कहा है । इसके लिए वे मंडी के माधोराय मन्दिर में सुरक्षित टांकरी में लिखित दुर्गा पाठ के अंत में लिखे सम्वत १११६ का साक्ष्य देते हैं । किन्तु इस मे संशय है, क्योंकि इस 5. सन 1060 =की पुस्तक
में न तो लेखक का नाम है और न ही यह सम्वत लिखने का प्रयोजन बताया गया है । माधोराय की स्थापना राजा सूरज सेन ने इ० सन १६४८ में की थी ।इसके साथ “ हिमाचल लोक संस्कृति संस्थान मंडी में सुरक्षित पुस्तक नानक शाही " जो टांकरी में लिखी है, सम्वत १७३७ ( ई० सन १६८० ) के आस पास की बताई जाती है । ब्रिटिश पुरातत्व विद एलेग्जेंडर कनिंघम १८१४-१८९३,द्वारा दिया गया, मंडी में स्थित सति स्तम्भ या बरसेलों पर टांकरी में लिखे सात शिला लेखों का विवरण, इसका पक्का प्रमाण हैं ।चित्र संलग्न है सबसे पुराना शिलालेख राजा सूरज सेन की मृत्यु के बारे में है ।इनका स्वर्गवास इ० सन १६६४ मे हुआ था ।राजा भवानी सेन के बरसेले पर अंकित टांकरी लेख को मैंने स्वयं पढ़ा है इनका स्वर्गवास स्म० १९६८ अर्थात इ० सन १९११ में हु था । टांकरी में रियासत मंडी का इतिहास कायथ ब्रिकम जी ने सन ई० १८८८ में मंडी के बिष्ट खानदान के पास मोजूद दस्तावेजो के आधार पर किया था, मंडी स्टेट गजेटियर १९२० में इसका जिक्र है, एसा लगता है यह पुस्तक अब उपलब्ध नहीं है । आज से लगभग १५० वर्ष पूर्व में लिखे कई व्यापारिक पत्र, बही खाते प्राप्त होते हैं । हिमाचल लोक संस्कृति संस्थान, मंडी मे ४०० से अधिक पांडु लिपियाँ सुरक्षित हैं इन सब से यह तो सिद्ध हो ही जाता है की मंडी जनपद में टांकरी लिपि का प्रचलन आज से लगभग ४०० वर्ष पूर्व तो था ही मंडी जनपद में टांकरी लिपि का विकास :उपरोक्त साक्ष्यों के अनुसार मंडी जनपद में टांकरी लिपि के विकास की कहानी काफी पुरानी है । राजा विजय सेन (१८५१ - १९०२ ) के शासन काल से पूर्व मंडी जनपद में इस लिपि का पठन पाठन छोटे छोटे मदरसों और गुरु शिष्य परम्परा से ही होता था मेरे घर के बुजुर्ग दादा स्व० मनसुख राम जी ऐसा कहा करते थे ।टांकरी पढाने के लिए कोई उचित और नियमित पाठ्यक्रम नहीं था । राजा विजय सेन ने १८६६ -६७ में मंडी में, एंग्लो वेर्नाकुलर मिडल स्कूल के नाम से शासकीय पाठशाला आरम्भ की( विजय सीनियर सेकेंडरी विद्यालय मंडी आज भी मौजूद है ) ।विद्यार्थिओं को टांकरी पढ़ाने के उचित प्रबंध के लिए एक पुस्तक लिखवाई ।इसका नाम वर्णमाला टांकरी" है ।यह पुस्तक एक इतिहासिक दस्तावेज है ।इसे मंडी के कायथ बगसी राम मल्होत्रा जी ने राजा के हुक्म से तैयार किया था । यह मंडयाली बोली और टांकरी लिपि में है ।इसे स० १९२७ (ई० सन १८७० ) में लिखा गया / इस के बाद स्० १९३८ और १९४८ ( सन इ० १८८१ और १८९१ ) में इस की नक़ल बनाई गयी फिर बगसी राम जी ने सं० १९६९ अर्थात इ० सन १९१२ में लाहोर से छपवा कर प्रकाशित किया । बाद में राजा जोगिन्दर सेन जो की मंडी जनपद के आख़िरी शासक थे, के समय इ० सन १९२९ बगसी राम जी के पुत्रों जय किसन और श्री अतर चंद ने छपवाया ।यह पुस्तक चौथी कक्षा तक के विद्यार्थिओं को टांकरी पढाने के लिए प्रयोग में लाई जाती थी ।इस पुस्तक की लाहोर से छपी प्रति मेरे पास सुरक्षित है ।इसके निर्माण का इतिहास मुख पृष्ट और अन्दर के पहले पृष्ट से स्पष्ट हो जाता है ।इसमें वर्णमाला, लिखने की तरकीब, वाक्य रचना, गणित, पत्र और अन्य दस्तावेजों के लिखने की तरकीब के साथ साथ, कथा कहानियां और दोहे आदि भी दिए गये हैं ।देश के आज़ाद होने पर मैकाले की शिक्षा प्रणाली यहाँ भी लागू हो गयी और इसके बाद पाठशालाओं में टांकरी पढ़ाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता । परन्तु इसके बाद भी कई वर्षों तक मंडी नगर के पुराने दुकानदार अपने बहीखाते मंडयाली बोली, टांकरी में लिखते रहे हैं ।ऐसा मैंने प्रत्यक्ष देखा है । आज के सन्दर्भ में टांकरी लिखने पढ़ने वाले व्यक्ति बिरले ही रह गये हैं ।एक प्राचीन लिपि को लुप्त होने से बचाने के लिए यह शोचनीय अवस्था है ।
पिछले कुछ वर्षों से टांकरी लिपि को पुनर्जीवित करने के लिए पूरे हिमाचल प्रदेश में सराहनीय कार्य हो रहा है ।हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी दवारा इसे पढ़ाने की व्यवस्था की गयी है, वहीं कुछ विद्वान और संस्थाएं भी इसके प्रचार और प्रसार का कार्य कर रही हैं । इनमे काँगड़ा से हरीमुरारी शर्मा . कुल्लू से यतिन पंडित, मंडी से पारुल अरोड़ा, के नाम उल्लेखनीय हैं । और भी कई विद्वान अलग अलग माध्यमो से इसके लिए काम कर रहे हैं । हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय में भी हिमाचल प्रदेश की बोलियों और लिपिओं पर शोध कार्य हो रहा है । मैं स्वयं २०१५ से इस पर कार्य कर रहा हूँ और २०१८ में देवनागरी हिन्दी के माध्यम से टांकरी लिखना पढना सिखाने के लिए पुस्तक ' मंड्याली टांकरी “ प्रकाशित की है ।२०२१' में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है । सन १८७० के बाद पहली बार कोई पुस्तक प्रकाशित हुई है ।टांकरी लिखने में काफी सरल है /जैसा मैं पहले लिख चुका हूँ इसे देवनागरी की तरह ही बाएं से दायीं ओर को लिखा जाता है ।इसके वर्णाक्षर देव नगरी और गुरमुखी से काफी मिलते जुलते हैं ।थोड़े से प्रयास से इसे लिखना पढ़ना सीखा जा सकता है ।
आज के सन्दर्भ में इसे सीखने की आवश्यकता क्या है, यह प्रश्न कई लोग करते हैं । परन्तु इसे जीवित करने के लिए और हिमाचल प्रदेश को अपनी पहाड़ी भाषा के लिए एक सर्व मान्य लिपि प्रस्तुत करने के लिए यह जरूरी है ।इतिहास और पुरातत्व के शोधार्थियों को टांकरी के पुरालेखों को पढ़ने के लिए इसकी जानकारी अति आवश्यक है । टांकरी लिपि की जानकारी होने के कारण मुझे कई पुराने शिलालेख. सान्थे, कानूनी दस्तावेज पढ़ने और उनका देवनागरी मे लिप्यांतर का सुअवसर प्राप्त हुआ है ।मेरा यह विचार है की हमे अधिक से अधिक पुराणी पांडुलिपियों और पुरालेखों को पढ़ने का अभ्यास करना चाहिए, ताकि प्रवाह में लिखी हुई इबारतों को हम आसानी से पढ़ सकें, अन्यथा मात्र लिखना पढ़ना सीखने से इसका महत्व गौण हो जाएगा ।
सन्दर्भ ग्रन्थ :---
१.चंबा सहस्राब्दी स्मारिका २००६, हिमाचल भाषा संस्कृति विभाग ।
२.हिमाचल प्रदेश की पुराणी लिपियाँ २०१८ । हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी।
३ . हिस्ट्री ऑफ़ मंडी स्टेट मनमोहन १९३०
४. मंड्याली और उसका लोक साहित्य १९७४ हेमकांत कात्यायन।
५.वर्णमाला टांकरी १८७० कायथ बगसी राम,मंडी ।
संलग्न : वर्णमाला टांकरी के दो पृष्ट / फोटो प्रति ।
२ राजा भवानी सेन के बरसेले का चित्र ।
३ एक अन्य टांकरी शिलालेख का चित्र
४ आर्य संध्या नामक पुस्तक का मुख पृष्ट फोटो प्रति ।
-जगदीश कपूर .
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