वैद्य परिवारों की धार्मिक परंपराएं-भाग-3
Posted on 28-11-2023 02:55 PM

कुल देवी (कुड़़ज):

कुलदेवी या कुलदेवता किसी भी परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदू धर्म में इसका विशेष स्थान है। और किसी भी शुभ अवसर जैसे शादी, नई बहू के आगमन, बच्चे के जन्म के समय और अन्य कई संस्कारों में कुल देवी या कुल देवता की पूजा की जाती है।

जैसा की प्रथम भाग में हम लिख चुके हैं की मंडी में नाड़ी बैद और जाति बैद सदियों से रहते आ रहे हैं तथा उनके गोत्र व कुलदेवी भी अलग-अलग हैं।जिससे यह लगता है कि यह अलग-अलग स्थानों से मंडी में आए और यहां आकर समय के साथ इनका आपसी अंतर मिट गया और कालांतर में यह सभी वैद्य उपनाम से जाने लगे।

उदाहरण के लिए मंडी के नाड़ी बैद का गोत्र शांडिल है तथा उनकी कुलदेवी चामुंडा कांगड़ा में है। जबकि जाती बैद वालों का गोल गोत्र है और कुलदेवी कहनवाल गांव में बसैणी (बगलामुखी) माता के रूप में स्थित है।

कहनवाल गांव में कुलदेवी की प्रतिष्ठा के पीछे मुख्यतः एक ही कारण नजर आता है कि यह सेन वंश की भी अधिष्ठात्री देवी है। क्योंकि सैन वंश जो बंगाल से आया था व कामाक्षी मंदिर शक्तिपीठ के संरक्षक रहे हैं, की स्थापना के समय उनके साथ कुछ लोग भी बंगाल से विभिन्न स्थानों से होते हुए अंततः मंडी तक आए थे। तो हो सकता है कि सेन राजा के प्रभुत्व के कारण जाति बैद वालों का भी बुसैणी माता को अपनी कुलदेवी मानते आ रहे हैं। वस्तुत इस बारे में कहीं पर कोई अभिलेख अथवा निश्चित कारण हमें पढ़ने को नहीं मिला।

1) बड़ी चौक में खुआरानी मंदिर:

 दरम्याना मुहल्ला में स्थित बड़ी चौक में एक मंदिर है जिसमें मूलतः एक मोहरे वाली माता की मूर्ति स्थापित है और घर के वंशजों के मुताबिक यह खुआरानी रानी के मंदिर के रूप में इसे जाना जाता है। गहराई से मूर्ति की जांच पता करने पर पता चला है कि यह पत्थर पर महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति है जो काफी पुरानी प्रतीत होती है क्योंकि एक जलहरी नुमा पत्थर की शिला पर रखी गई है।

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कालांतर में इस चौकी में रहने वाले कई परिवारों ने नगर में और जगह अपने नए मकान बना लिए, तब भी इस मंदिर में उनका आना निर्वाद्ध रूप से जारी है और उनके घरों में जब भी कोई उत्सव,कारज या शादी होती है तो उसका निमंत्रण पत्र सबसे पहले वो यहीं पर इस मंदिर में देते हैं। यह भी पता चला है कि इस मंदिर में पूजा करने के लिए जो बर्तन इत्यादि रखे होते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में संज्झ कहते हैं,की सफाई और पूजा करने की परंपरा प्रति परिवार आपस में एक नियमित समय के लिए बांटी गई थी और वह परिवार हमेशा अपने दिए गए समय व अवधि के लिए मंदिर में आकर के पूजा के बर्तन को साफ करते थे और पूजा करके अपनी धार्मिक परंपरा का निर्वाह किया जाता था। लेकिन बाद में इसमें कुछ बदलाव आया और अब केवल इसी चौकी के एक ही परिवार के सदस्य इसकी पूजा अर्चना व इसका प्रबंध नियमित रूप से कर रहे हैं। साल में कई बार यहां पर रात्रि जागरण व भजन गीत सामूहिक रूप से विशेष त्योहार व अवसर पर गाए जाते हैं। किसी परिवार के द्वारा मनौती पूर्ण होने पर जिसे सुखना भी कहते हैं में रात्रि जागरण में चौकी के सभी वैद्य परिवार सम्मिलित होते आ रहे हैं।

2) गूगा पूजन की परम्परा:

       बड़ी चौकी में ही मस्तराम वैद्य जी के मकान के धरातल तल पर आज भी एक कमरे में गूगे की पूजा होती है और यह प्रथा सदियों से चली आ रही है। वैद्य परिवार में जब भी ब्याह शादी होती है तो उसका निमंत्रण पत्र यहां पर भी दिया जाता है। रियासत कॉलिन मंडी में जो खतरियों की विभिन्न उपजातियां रहती आ रही है उनमें बड़ी चौकी व सोहनलाल जीवनलाल जी के घर को छोड़कर हमें कहीं पर भी गूगा पूजन के बारे में जानकारी नहीं मिली। सोहनलाल जी के पुराने घर से अब यह गूगा मंदिर पैलेस कॉलोनी के नए मकान में स्थानांतरित किया जा चुका है यहां पर परिवार के सदस्य इसकी नियमित रूप से पूजा करते हैं।यह गूगा पूजन केवल इन्हीं दो घरों तक ही सीमित है। इससे सिद्ध होता है कि गूगा संस्कृति कभी मंडी नगर में भी प्रचलित थी और अभी तक उसका निर्वाह भले ही छोटे स्तर पर सही इन चौकीओं में किया जाता रहा है। 

हम देखते हैं कि कुछ विशेष अफसर पर गूगा को पूजने वाले लोग शहर में घूमते हैं और विशेष पर्वों पर लोगों से दान दक्षिणा भी लेते हैं। लेकिन हमें कहीं पर भी इतिहास में यह संदर्भ नहीं मिला की मंडी में विशेष कर खत्री उपजाति के वैद्यों में गूगा का पूजन कब से व क्यों शुरू हुआ और यह संस्कृति कहां से आकर के यहां पर पनपी। यह अभी भी गहन शोध का विषय है।

3) नारसिंह देवता की पूजा:

स्थानीय भाषा में इसे नरसिंग्घ भी कहा जाता है।पूछने पर लीला हांडा जी ने बताया कि" चमचीड़े री चौकी की सबसे उपर वाली मंजिल में नरसिंह देवता का एक छोटा सा मंदिर अभी भी है और रोज पूजा भी होती है। जब किसी के यहां के परिवार में बेटा पैदा होता है तो उसे परिवार के अन्य सदस्यों के साथ पूजा की जाती है। लेकिन इस चौकी में गूगे की पूजा नहीं होती"। 

नारसिंह का स्थान एक छड़ी के रूप में बड़ी चौक व डुग्गी परौड़ के बीच में भी रहा है जिसके अब अवशेष ही बचे हैं। पूजा तो कई वर्ष पहले से ही बंद है। 

खतरियों की अन्य उप-जातियों में भी नारसिंह की पूजा के कई साक्ष्य नगर में मिल जाते हैं। इसके पीछे तो यही धारणा रही होगी कि घर में संतान व सुख सुविधाओं के अलावा देवता का आशीर्वाद बना रहे तथा बीमारी के प्रकोप से बचाव हो।

4.गद्दीवीर इष्टदेव:

         बंगला मोहल्ला में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी चंचल राम जी के घर,जिसे बैदा रा घर क्या कर भी नगर वासी जानते हैं, के इष्ट देव के बारे में नई जानकारी इसी घर के युवा निवासी कमल वैद्य मिंटू से मिली है। इन्होंने बताया कि इस चौकी का इष्ट देव वस्तुतः पड्डल में रामचंद्र मंदिर के समीप ही एक पेड़ व चबूतरे में स्थित है। यहां पर कोई मूर्ति विराजमान नहीं है। वर्ष पहले यह चबूतरा काफी जीवनसुनी अवस्था में था जिसे उनके पिता श्री मास्टर बलदेव जी ने चौकी के अन्य परिवारों का सहयोग से दोबारा निर्मित कराया था। कहते हैं की गद्दीवीर को ब्राधीवीर का भाई भी माना जाता है। गद्दीवीर देवता के पुजारी उपाध्याय परिवार से हैं जिनकी चाय की दुकान मामू टी स्टाल के नाम से कॉलेज के पास ही स्थित है। गद्दीवीर से ऐसा प्रतीत होता है कि यह भरमौर से कहीं ना कहीं जरूर संबंधित होगा क्योंकि रियासत कालीन मंडी में गद्दी देवता के रूप में केवल बाबा कोट जाने जाते हैं। लेकिन घर के बुजुर्ग में गद्दीवीर देवता की पृष्ठभूमि व इतिहास के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दे सके जो की खोज का विषय है।

5) वैद्यों का देवता (खतरीयाँ रा दयो):

नगर के वैद्य परिवारों को यह जानकर खुशी होगी की रियासत काल में एक वैद्य परिवार ने जंजैहली के वायला गांव में अपने देवता का रथ भी बनाया हुआ था।देवता का नाम वायला नारायण है जो प्रतिवर्ष शिवरात्रि के मेला में देवलूओं सहित बाजे गाजे के साथ आते थे। अंतिम बार रियासत काल में यह देवता वर्ष 1945 में आए थे। देवता के गुरु से प्राप्त जानकारी के अनुसार उसमें शायद राज परिवार के साथ किसी धार्मिक परंपरा को लेकर के मतभेद हो गया था जिस कारण श्रद्धेय देवता जी ने राज परिवार के निमंत्रण मिलने के बावजूद भी शिवरात्रि मेला में आना छोड़ दिया।

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लगभग 41 वर्षों के पश्चात 1991 में आयोजित शिवरात्रि मेले में वायला नारायण जी मण्डी नगर में पधारे और जलेबी की शोभा बढ़ाई। उसके पश्चात फिर मेले में आना बंद कर दिया।

देवता मेला कमेटी के पुनः आग्रह पर वायला नारायण जी अपनी बहन वायला गुस्सैणी के रथ के साथ वर्ष 2021 में मंडी शिवरात्रि में पधारे। इनका बैठने का अपना विशेष स्थान है। दोनों देवता मंडी कॉलेज के प्रांगण में विशाल पीपल के पेड़ के नीचे बने पत्थरों के चबूतरे पर बैठते हैं तथा पूरे मेले के दौरान वहीं पर ही दिन में विराजमान होकर के शाम को अपने निर्धारित स्थान पर चले जाते हैं।

5(1)खतरियों का देवता: कैसे ज्ञात हुआ?

देवता के रथ के बनने की कहानी भी बड़ी रोचक है।बॉयला गावँ में मंडी के जवाहर खत्री का कठियार था जिस जमीन पर बाद में वन विभाग का रेस्ट हाउस बना। कठियार में ये देवतागण आते थे। देवता का मूल स्थान वायला गांव में है जहां यह शिव की पिंडी के रूप में स्थापित हैं।

मंडी शिवरात्रि की अंतिम जलेब में बॉयला (जंजैहली) से आये देव,देवी क्रमशः बॉयला नारायण व बॉयला गुशैणी के साथ खत्री सभा मंडी की ओर से भी कार्यकारिणी के सदस्य साथ गए थे वहां पर इस पोस्ट के लेखक ने पुजारी व गुरु का साक्षात्कार लिया। देव पुजारी व गुर से ज्ञात हुआ कि रियासत काल में जब यह देवता मंडी शिवरात्रि में आते थे तो नगर के एक प्रतिष्ठित खत्री के घर में ठहरते थे लेकिन समय अधिक बीत जाने के कारण उन्हें उस परिवार का नाम पता मालूम नहीं था। तथा खोजबीन करने पर भी इस बारे में वे नहीं जान पाए। 

इस पोस्ट के लेखक ने शिवरात्रि में आए देवता का फोटो खत्री सभा यूथ विंग के फेसबुक पेज पर जब डाला तो पाठकों की ओर से बहुत ही जानकारी सामने आई । जिसमें रमण बिष्ट, राजेंद्र मल्होत्रा व ललित कुमार कपूर की टिप्पणियां काबिले गौर हैं। उन्हें पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि जिस खत्री परिवार का देवता के पुजारी ने जिक्र किया था वस्तुत वह समखेतर में स्थित जवाहर वैद्य जी के घर के बारे में था।

वायला नारायण जी मण्डी शिवरात्रि मेले में इनके घर ही ठहरते थे इसलिए जँजैहली क्षेत्र में इन देवताओं की पहचान बतौर खतरीयां रा दयो के रूप में थी। जो पहचान आज भी जारी है। इस रथ को बनाने का खर्चा इसी खत्री परिवार की ओर से किया गया था। और ऐसा प्रतीत होता है की मंडी जनपद में शायद सबसे पहले देवता का रथ वायला नारायण जी का ही बना होगा। क्योंकि वर्ष 1904 की शिवरात्रि में सेरी में चानणी के साथ देवता गणों के रथ एक फोटो में नजर आते हैं और उनमें सबसे बाईं ओर वाला रथ वायला नारायण जी का ही प्रतीत होता है।

प्रमाणिक जानकारी मिलने पर खत्री सभा मंडी में प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष शिवरात्रि मेले में वायला देव जी के आगमन पर उन्हें खत्री सभा भवन में बुलाया जाता रहेगा और देवता जी की की यथा संभव सेवा करके सम्मान किया जाएगा। इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए वर्ष 2022 में कार्यकारिणी के सदस्य ने आदर सहित नगर निगम के भवन जहां पर देवता गण के ठहरने की व्यवस्था की गई थी इन्हें खतरी सभा भवन में लाया गया और सम्मान स्वरूप इन्हें भेंट दी गई तथा देवलुयों को मंड्याली धाम खिलाई गई।

 आशा है कि यह परंपरा इन देवता गणों के प्रति भविष्य में भी जारी रहेगी और सभी खत्री समुदाय के लोग इनके दर्शनार्थ खत्री सभा भवन में निश्चित समय पर आया करेंगे। अपनी खोई हुई व विस्मृत धार्मिक परंपराओं के बारे में जब ज्ञात होता है तो यह सारे समुदाय के लिए बहुत ही हर्ष व उल्लास का विषय बन जाता है।

शोध व आलेख विनोद बहल एवं डॉक्टर पवन वैद्य। mandipedia/2023


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