रियासत कालीन भोजन शैली -भाग 2
-भोजन संबंधी विशेष आदतें:
आलेख विनोद बहल एवं डॉक्टर पवन वैद्य mandipedia.com 2024
यदि हम मंडी की बात करें तो अभी भी यहाँ समुदाय ने अपनी संस्कृति, भोजन और परंपराओं को नहीं खोया है। आज भी घरों में कुछ व्यंजनों को बनाने व खाने का तरीका एक बराबर ही मिलेगा। कुछ विशेष व्यंजन पाक विरासत की तरह ही हैं जिनका ज़ायक़ा अभी भी बरकरार है।
1.चुल्हे रा भात:
भात के बिना दिन का खाना पुरा नहीं माना जाता था । भात हमेशा घर के वरिष्ठ पुरुष ही बनाते थे। भात एक बड़े पतीले, जिसका निचला हिस्सा राख(भास) से पोता रहता था, में चुल्हे पर बनाते थे। यह तरीक़ा बर्तन को लकड़ी के धुएँ से काला होने से बचाता था। आमतौर पर उँगलियों से चावल का पकना (दो कंनि रहने तक) जाँच कर पतीला चुल्हे से उतार लेते थे। अब सबसे मुश्किल काम होता था पीच्छ (चिकनाई वाला पानी) निकालने का, पतीले पर ढक्कन लगा कर उसे उल्टा कर ज़्यादा पानी निकालना(निटारना) व गर्म भाप पर नियंत्रण रखना। पतीले को वापिस चुल्हे की गर्म राख पर दम लगाने व कुरासन बनने के साथ ही भात खाने के लिये तैयार मिलता था।
2.हुआरू री दाल-
Okपुरातन कुकर-छईं वाला तुड़का: छईं: आज की वरिष्ठ पीढ़ी भला 'छईं' शब्द को कैसे भूल सकती है। घर में पहले आज की तरह दाल बनाकर उसे प्याज जैसा टमाटर की प्युरी बनाकर स्वादिष्ट नही बनाया जाता था। पहले सभी घरों में भोजन चूल्हे पर ही पकाया जाता था। ईंधन की प्राय कमी ही रहती थी और लकड़ी के भारे को सेरी बाजार में चानणी व विक्टोरिया पुल के पास बिकने के लिए आते थे जहां सुबह व शाम के समय लोग लकड़ी का भारा खरीदते थे। हमारे बुजुर्ग ईंधन का प्रयोग बहुत ही किफायत के साथ करते थे। सभी घरों में एक प्रथा थी कि यहां वर्ष भर माश की दाल सारी साल बनती थी।इसके बगैर सुबह का भोजन अधूरा माना जाता था। रात को भोजन उपरांत ग्रहणियां कांसे के बने बर्तन, जिसका एक विशेष आकार पतली गरदन की तरह थोड़ा ऊंचाई में होता था जिसे स्थानीय भाषा में 'हूआरू' कहते थे, उसमें माह की दाल पकाने के लिए डाल दी जाती थी। और उसके ऊपर कांसे का ही उस साईज का ढक्कन जो उस पर फिट बैठता था लगाकर उसमें पानी भर दिया जाता था। चूल्हे में कोई लकड़ी नहीं जलाई जाती थी। चूल्हे की गर्म राख में एक लकड़ी का टुकड़ा जो जला हुआ बच जाता था उसे दबाकर रख देते थे जिसे 'म्याड़ठू' कहते थे। और सुबह उसमें लाल खूब पकी हुई माह की दाल तैयार मिलती थी और इस तरह कम खर्च व कम ईंधन से ही माह की दाल बनाई जाती थी। आप इसे उस समय का कुकर भी कह सकते हैं।
3.झोड़ा री बाअ्यं:
भात और माश की दाल के साथ यदि झोल ना बना हो तो खाने वाला अपने को भूखा ही महसूस करता है और खाना अधूरा माना जाएगा। ब्याह शादी में जब अंतिम व्यंजन दाल परोसी जाती है तो मंडी में रिवाज था की पंगत में बैठे हुए लोग चावल दाल इकट्ठा करके बीच में एक बड़ी गोल जगह बनाते थे जिसे हम सभी बाअ्यं बना कर झोल के आने का इंतजार करते थे।कहने का अभिप्राय यह है की बावली की तरह इसकी आकृति बन जाती थी इसलिए मंड्याली में इसे बाअ्यं कहा जाता है। और जब झोल आ जाता था तो फिर एक अलग ही सामूहिक संगीत की आवाज़ 'सुड़ुप-सुड़ुप' सुनाई देती थी। अब भी पंगत में बैठे हुए लोगों की पत्तल में आपको यदा कदा ऐसा देखने को मिल जाता है।
4.छलुआं भात:
अब तो यह शब्द लगभग विलुप्त हो चुका है लेकिन 'तुड़की रा भात' के स्थान पर पहले छलुआं भात ही कहा जाता था। मण्ड्याली धाम की समाप्ति पर उसका एक विशेष पहलू है टिफिन में भात को अपने नाते रिश्तेदारों को भेजना। यह यहां की भोजन संस्कृति का अभिन अंग है और सर्दियों के दिनों में तो इसका विशेष महत्व रहता है क्योंकि ठंडा मौसम होने के कारण इसका अगले दिन ही प्रयोग होता है जिसमें सभी व्यंजनों को भात के साथ मिलाकर कढ़ाई में छौंका लगा कर इसे बनाया जाता है और यह इतने ज्यादा घरों में बंट जाता है कि खाने वाला और खिलाने वाला दोनों को आश्चर्य होता है कि कहां भेजा था और कहां पहुंच गया। क्योंकि नगर में रिश्तेदारी अधिकांशतः स्थानीय है जो भात के वितरण के लिए बिलकुल अनुकूल है। यह प्रथा इतनी ज्यादा प्रसिद्ध है कि सर्दियों में बड़े-बड़े टिफिन में खाना शिमला, चण्डीगढ़ और दिल्ली तक तथा हिमाचल के अन्य भागों में जहां रिश्तेदार रहते हैं, वहां तक पहुंच जाता है और जिसे लोग बड़े चाव से खाते हैं।
5.बटुरू:
बटूरू एक खमीरी रोटी है व कुछ अंग्रेज़ी बन की तरह है पर यह चपाती या फुलका नहीं है। इसे गेहूं के आटे में पानी व मलेड़ा/खमीर मिलाकर बनाया जाता है। अच्छी तरह गूंथे हुए आटे को अगले 4-5 घंटों के लिए छोड़ दें। अब हाथों से आटे की छोटी छोटी लोई को रोटी का आकार देकर, रोटियों को कपड़े के नीचे लपेट कर अगले 10-15 मिनट के लिए छोड़ दें। अब आप बटुरू को तवे पर सेंक कर, जब यह दोनों तरफ से सिक जाए तो इसे सीधे आग के सामने अंगार पर रख दें ताकि यह नरम और फूल जायें। इन्हें मौसमी सब्जियों, या दाल के साथ गरमागरम खाने का मज़ा लें। बटुरू को भरवां व फ्राइड (कचौरी) भी खाया जाता है।
6.सिड्डू:
यह पकवान इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि नगर के प्राय: सभी मोहल्ले में कोई ना कोई दुकान इसे बेचते हुए मिल जाएगी। मोमों जो मूल रूप से तिब्बतीयन व्यंजन है शहर में बहुत बाद में आया।लेकिन हमारे पूर्वज गेहूं के आटे में पिसी हुई माश की दाल मसालों के साथ मिलाकर सिड्डू को टौर के पत्तों में लपेटकर उसे तीलियों से स्टिच करके पानी में उबालते थे।और फिर इसमें ढेर सारा देसी घी डालकर इसके स्वाद का आनंद लिया जाता था। अब इसको बनाने की विधि बिल्कुल ही बदल चुकी है और बाजार में इसको भाप की विधि से छलनी नुमा बड़े-बड़े बर्तनों में रखकर तैयार करते हैं। तो साल भर सिड्डू बाजार में आसानी से उपलब्ध रहता है।
-घर में होता था सिड्डू बनाना निषेध: मंडी नगर की एक प्रथा सिड्डू से जुड़ी हुई है जो आजकल की पीढ़ी को हास्यास्पद भी लग सकती है। पहले इसे विशेष स्थिति को छोड़कर घर में बनाना भी निषेध होता था। घर में किसी की मृत्यु होने पर प्राय: उस समय एक समय ही खाना खाते थे। तो उसमें खाने वाला भोजन प्राय गरीष्ठ ही होता था। चूकी शोक काल में किसी भी व्यंजन को तलना निषेध होता था।इसलिए बुजुर्गों ने शायद उस समय यह रास्ता निकाला होगा की भोजन भी स्वादिष्ट बने, भारी भी हो और तला हुआ ना हो। दूसरी मजेदार बात यह है कि सिड्डू को घर में केवल किसी की मृत्यु होने पर ही बनाया जाता था।बाकी समय इसको बनाना बुरा माना जाता था। मंडियाली में कहावत मशहुर है “क्या मरणा रा खाणा बणाइईरा'" और इस रिवाज का पालन बड़ी कड़ाई से सभी घरों में होता था। इन व्यंजनों का स्वाद, तैयारी का तरीका, परोसने का तरीका, मसालों का उपयोग अपने आप में विशिष्टता लिए हुए हैं। अनेक अध्ययन बताते है कि पारंपरिक भोजन शैली पोषण की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त पाई गई है व इसे संजोए रखने की हर कोशिश होनी चाहिए। -*-